कौन था त्रीशंकु ? जिसके लिए विश्वामित्र ने एक अलग स्वर्ग का निर्माण किया था।
सूर्यवंशी इक्षुवाकु वंश के सत्यव्रत जो की प्रभू श्रीराम के पूर्वज भी थे ,एक बेहद दयालु और अपनी प्रजा का हित चाहने वाला राजा था, जिसने अपने शासनकाल के दौरान कई धार्मिक कार्य किए और अपने आराध्य को प्रसन्न करने की हर संभव कोशिश की।
उम्र के सही पड़ाव पर आकर सत्यव्रत ने राजगद्दी अपने पुत्र हरिश्चंद्र को सौंप दी और स्वयं मानव शरीर के साथ स्वर्ग में पहुंचने की कोशिश में लग गया। अपनी इस कोशिश को पूरा करने के लिए वह अपने गुरु वशिष्ठ के पास पहुंचे और उन्हें एक ऐसा यज्ञ करने की बात कही जिसके बाद वह नश्वर शरीर के साथ स्वर्ग की दहलीज पार कर जाए।
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गुरु वशिष्ठ, सत्यव्रत की बात से बेहद क्रोधित हो उठे और उनसे कहा कि वह ऐसा विचार भी अपने मन से निकाल दे क्योंकि यह उसके लिए बेहद घातक साबित हो सकता है। गुरु वशिष्ठ के इस यज्ञ को मना करने की बात सुनकर वह उनके पुत्रों के पास गया और सारा हाल बताया और कहाँ की वो सब इस यज्ञ को करें।
जब वशिष्ठ के पुत्रों को यह बात पता चली कि उनके पिता पहले ही इस यज्ञ को करने से मना कर चुके हैं और इसके बाद भी सत्यव्रत उनका असम्मान कर इस यज्ञ को करवाने की सोच रहा है तो उनके पुत्रों ने सत्यव्रत को चांडाल (दाह-संस्कार करने वाले डोम) बन जाने का श्राप दिया। अगले ही पल सत्यव्रत, चांडाल के स्वरूप में आ गया, उनका शरीर एकदम से काला पड़ गया,उनके कपड़े मैले पड़ गए ,गले मे मोतियों की माला की जगह नरमुंड की माला आ गई।
इस घटना के बाद भी सत्यव्रत ने स्वर्ग जाने का अपना विचार नहीं बदला और अपने यज्ञ करवाने की इच्छा को पूरी करने के लिए गुरु वशिष्ठ के प्रतिद्वंदी माने जाने वाले महर्षि विश्वामित्र के पास गये, और विश्वामित्र ने इसे सहस्व स्वीकार कर लिया, और सभी देवताओं और ऋषियों और ऋषि पुत्रो को बुलाया था, परंतु देवताओं ने इस यज्ञ मे आने से मना कर दिया ,तभी गुरु वशिष्ठ के पुत्र आये और विश्वामित्र को रोकने तथा सभी ऋषियों को इस यज्ञ को करने से मना करने लगे इस बात से विश्वामित्र क्रोधित होकर विशिष्ट कुमारों को श्राप दे दिया की वे चंडाल मे तब्दील हो जाएँ और सिर्फ मांस का भक्षण करें , ऋषि कुमारों की ऐसी हालत देखकर सभी ऋषि मुनि डर गये और विश्वामित्र का साथ देने का तैयार हो गये।
विश्वामित्र ने सत्यव्रत की बात मानकर उसे नश्वर शरीर के साथ स्वर्ग भेजने के लिए यज्ञ का आरंभ किया। यज्ञ के दौरान सत्यव्रत आसमान की ओर उड़ने लगे और कुछ समय बाद वह स्वर्ग के दरवाजे के बाहर पहुंच गए।
सत्यव्रत को स्वर्ग के सामने खड़ा देख स्वर्ग के राजा इन्द्र परेशान हो गए और अपनी शक्तियों से सत्यव्रत को धरती की ओर धकेलने लगे।
स्वर्ग की ओर से इन्द्र देव उन्हें नीचे धकेलते और अपनी हार को रोकने और अपने सम्मान को बचाने के लिए महर्षि विश्वामित्र अपने मंत्रों द्वारा सत्यव्रत को आकाश की ओर ले जाते,सत्यव्रत ऊपर-नीचे के इस खेल में उलझ गया और बिना किसी आधार के बिना ही त्रिशंकु के भाँति लटका आकाश और धरती के बीच ही लटक गया ।
ऐसे हालातों में अपना सम्मान और वचन को बचाए रखने के लिए विश्वामित्र ने सत्यव्रत के लिए इन्द्र के स्वर्ग के बराबर आकश के दक्षिणी भाग में एक और स्वर्ग बना दिया और उसे यह आश्वासन दिया कि वह उसे इन्द्र का स्थान दिलवाएंगे।
महर्षि विश्वामित्र की इस कोशिश ने देवताओं को डरा दिया और समस्त देवतागण उन्हें यह समझाने की कोशिश करने लगे कि सत्यव्रत को इन्द्र के समरूप बनाने की उनकी कोशिश अगर सफल हो गई तो इसका नतीजा बहुत बुरा होगा, परंतु तबतक विश्वामित्र एक और स्वर्ग का निर्माण कर चुके, जिसे चार नक्षत्र मे भी स्वर्ग मे आ चुके थे।
देवताओं के आग्रह की वजह से विश्वामित्र ने यज्ञ को समाप्त करने की बात तो मान ली लेकिन वह सत्यव्रत को दिए गए अपने वचन से मुकरना नहीं चाहते थे।
महर्षि विश्वामित्र ने देवताओं से कहा कि वह अपने दिए गए वचन से मुकर नहीं सकते इसलिए उन्होंने जो स्वर्ग सत्यव्रत के लिए बनाया था उसे वहीं रखने की बात कही। इसके अलावा देवताओं को इस बात के लिए भी मना लिया कि आज के बाद सत्यव्रत अपने लिए बनाए गए स्वर्ग, ‘त्रिशंकु स्वर्ग’ में ही रहेगा। और ये स्वर्ग सत्यब्रत की उल्टी अवस्था के चलते उल्टा ही निर्मित हुआ था , और इसका प्रभाव भी उल्टा ही था,इस तरह सत्यब्रत को भी लोग त्रिशंकु के नाम से जानने लगे।
यहीं से शुरू होती है त्रिशंकु स्वर्ग की कहानी। आम भाषा में उस अवस्था को त्रिशंकु स्वर्ग में रहना कहा जाता है जब ना तो इंसान खुश होता है और ना दुखी और वह अपने हालातों को समझ नहीं पाता आज उन चारों नक्षत्रों के रूप मे त्रिशंकु स्वर्ग भी दिखता है।
ये कहानी हिंदू धर्म के पौराणिक ग्रंथो से ली गई हैं ।
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